उत्तराखण्ड : कुमाऊं :
कुमाऊं की सर्वाधिक प्राचीन नगरी चंपावत के निकट कानदेव
नामक पर्वत है, जिसका आकार कूर्म जैसा है। किंवदंती है कि
भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार के समय इस पर्वत षिखर पर तीन
वर्ष तक तपस्या की थी, जिसके कारण इसके आसपास का भूभाग
कूर्मांचल कहलाया। स्कंद पुराण के अनुसार –
खण्डा पंच हिमालयस्य कथिता नेपाल कूर्मांचलौ ।
केदारोथ जलंधरोथ रुचिरः कष्मीर संज्ञोन्तिमः।।
कूर्म से कुम्म – कुम्मुं – कुमूं का विकास अस्वाभाविक नहीं। कुमूं
षब्द आज भी उक्त भूभाग का द्योतक है। हिंदी की प्रकृति के अनुसार
कालांतर में कुमूं से ही कुमऊं व कुमाऊं षब्द बने होंगे। हिंदी साहित्य के
आदिकाल में चंदवरदाई विरचित ‘पृथ्वीराज रासो’ में कुमऊं तथा भक्ति
काल में सूफी उस्मान द्वारा लिखित ‘चित्रावली’ में कुमाऊं षब्दों का
प्रयोग मिलता है –
सवा लक्ख उत्तर सयल कुमऊं गढ़ दूरंग ।
राजत राज कुमोद मनि हय गज द्रब्ब अभंग ।।
सिरीनगर गढ़ देख कुमाऊं।
खसिया लोग बसहिं तेहि गाऊं।।
समाजषास्त्रीय एवं नृवैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता
है कि प्रागैतिहासिक काल में कुमाऊं गढ़वाल के भू भाग किरात मंगोल
आदि आर्येतर जातियों के निवास क्षेत्र रहे, जिन्हें कालांतर में उत्तर
पष्चिम की ओर से आए अवैदिक खस आर्यों ने विजित कर लिया।
कालांतर में देष के अन्य भागों से ब्राह्मण एवं राजपूत क्षत्रिय जातियां
भी कुमाऊं में आकर बसने लगीं।