सिनेमा: संगीत नाटक:
बीसवीं शताब्दी में पारसी रंगमंच से जुड़े उद्यमियों और कलाकारों
ने फिल्म निर्माण और वितरण के क्षेत्र में प्रवेश किया। इस क्षेत्र
में प्रारंभ में स्थापित मदन थियेटर, इंपीरियल फिल्म, मिनर्वा
मूवीटोन, वाडिया मूवीटोन आदि फिल्म कंपनियों के मालिक पारसी
परिवारों के प्रसिद्ध लोग थे।
सोहराब मोदी की 1935 में बनी खून का खून, 1936 में बनी
सईद-ए-हवस तथा 1937 में बनी खान बहादुर नामक फिल्में पारसी
रंगमंच का सिनेमाई रूपांतरण ही मानी जाती हैं। रंगमंच से जुड़े
अभिनेता पृथ्वीराज कपूर को लेकर बनाई गई आलमआरा 1931,
पागल 1940 और सिकंदर 1942 पर भी पारसी रंगमंच के अनेक
तत्वों का प्रभाव दिखता है।
महाराष्ट्र की संगीत नाटकों की परंपरा हिंदी सिनेमा पर प्रभाव डालने
वाली अगली कड़ी है। संगीत नाटकों का आरंभ विष्णुदास भावे की
प्रस्तुति सीता स्वयंवर 1853 से माना जाता है। इस परंपरा को बाद
में अन्ना साहब किर्लोस्कर की किर्लोस्कर नाटक मंडली 1880,
केशव राव भोले की ललित कलादर्श 1908, बाल गंधर्व की गंधर्व
नाटक मंडली 1913 के बाद गोविंद राज तेंबे की शिवराज नाटक
मंडली ने आगे की ओर बढ़ाया। ये नाटक मंडलियां पौराणिक
आख्यानों पर आधारित नाटकों के अलावा शेक्सपियर के नाटकों के
मराठी रूपांतरणों का भी मंचन किया करती थीं।
इन नाटक मंडलियों से चित्रकार के रूप में जुड़े बाबूराव पेंटर ने
1918 में महाराष्ट्र फिल्म के बैनर तले अपनी पहली फिल्म सीता
स्वयंवर का निर्देशन किया। बाद में उन्होंने शालिनी सिनेटोन की
स्थापना कर पौराणिक प्रसंगों पर आधारित सुरेखा हरण 1921,
श्रीकृष्ण अवतार 1923, सती पद्मिनी 1924, भक्त प्रह्लाद 1926
नामक फिल्में बनाईं।