सिनेमा: रंगमंच:
हिंदी सिनेमा को प्रभावित करने वाली प्रदर्शनकारी विधाओं में
पारसी रंगमंच का अपना अलग महत्व है। इसका जन्म उन्नीसवीं
शताब्दी के प्रारंभ में माना जाता है, जिसे पारसी उद्यमी जगन्नाथ
सेठ ने 1846 में मुंबई में ग्रांट रोड थियेटर की स्थापना कर
संस्थागत आधार पंदान किया। उसके बाद 1870 के दशक में खुर्शेद
जी बालीवाला की विक्टोरिया थियेट्रिकल तथा कोवास जी खटाउ की
एल्फ्रेड थियेट्रिकल नामक दो बड़ी कंपनियां स्थापित हुईं।
पारसी थियेटरों में पारसी कलाकारों के साथ साथ आंग्ल-भारतीय तथा
मुसलमान कलाकार भी काम किया करते थे। इन कलाकारों ने राजा
हरिश्चंद्र, प्रह्लाद, नल-दमयंती, शीरीं- फरहाद, लैला-मजनू, आदि
नाटकों का प्रभावशाली मंचन करके पौराणिक एवं प्रणय प्रधान प्रसंगों
को पर्याप्त लोकप्रिय बनाया। जाहिर है कि कला के मंच पर जाति धर्म
का कोई भेद भाव नहीं होता। कलाकार सिर्फ कलाकार होता है, जो
अपनी संपूर्ण निष्ठा के साथ अपने किरदार को अदा करता है।
पारसी रंगमंच का संगीत संयोजन विशिष्ट होता था। हारमोनियम और
तबले की संगत पर भैरवी, पीलू, यमन व कल्याण रागों की तर्ज पर
ठुमरी, गजल, लावणी, मुसद्दा और मुखम्मा उंचे स्वरों में गाए जाते थे।
संवादों की भाषा खड़ी बोली होती थी, जिसमें उर्दू के शब्दों का खुलकर
प्रयोग किया जाता था।
उन्नीसवीं शती के समापन से पहले पारसी रंगमंच ने स्वांग नाटिकाओं
पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया, जिसका प्रमुख कारण खुर्शीद,
मेहताब और मेरी फेंटन जैसी गायिकाओं तथा नर्तकियों का रंगमंच पर
पदार्पण माना जाता है। बावजूद इसके स्वांग की तरह पारसी रंगमंच भी
अभिजन समाज में अपना कोई स्थान नहीं बना सका।