लोककथा: तीन र्ावाटै कि फिफिरी
जब घरा का सबनैंल खै हालो तब वीकि सासु तीन फिफिर जासा
र्वाटा वीक मुख में खिति दिनेर भै बिन सागै लूंण तक विकें परापत
निं भै। व्याकि दुल्हंणि कें कतुक आपण मैतिनै कि याद उंछ, पर वां
त सासु वीक इज बाबुक नाम में माट बुकूनेर भै।
सव्बै दुख वि छोरि पर दगड़ै पड़। जैकें भल खांण निं मिलौ, भल बोल
लै जैहुं हरै जा, उ आपणै दुख में निं घुलली त कि होलि ? ब्याक छैयै
म्हैंणाक भितेर में छोरि घट क जस पाट बैठि ऐ गे और वील विस्तर
पकड़िल्हि।
जब वीकि इज कें गौं में आपणि चेलिक हाल मालुम भया त कोखि कि
आगैल इज बिचारि चेलिक सरास हुं बाट लागि। वां जै बेर देखछी त चेलि
खाट भिजि भै।
आपणि इजक बुलाण सुणि बेर चेलिल आंखा ख्वाला। इज के देखते ही
नौल जासा आंखा डबडबै ऐ गे। बड़ि मुस्किलैल वीक खाप बै बोल निकल:
‘इजा ! ..तीन ..र्वाटै कि .. फि .. फिंरी’ और छोरिल खट्ट पराण
छोड़ि दि। मरि बेर उ चेलि तितिर बणि गे जो आजि लै कूंॅछः ……
‘‘तीन र्वाटै कि फिफिरी, तीन र्वाटै कि फिफिरी’’।