लोककथा: पुर पुतई पुरै पुर:
माँ तो सारे दिन खेतों में काम करने में व्यस्त रही। छोटी बच्ची
काफल की टोकरी के पास बैठी रही। काफल के लाल, रसीले दाने
देख-देख उसका मन तो ललचा रहा था उन्हें खाने के लिए, पर माँ
ने कहा था न कि काफल खाना मत। बच्ची ने एक दाना भी उठाकर
मुँह में न रखा।
चैत में धूप में तेजी आ जाती है, गरमी भी लगने लगती है। दिन
की धूप के कारण काफल मुरझा गए और टोकरी में नीचे बैठ गए।
जब माँ घर वापस आई तो उसने देखा कि काफल तो कम है। उसने
बेटी से पूछा: ”तूने खाए इसमें से काफल?“ बेटी ने सच-सच बता
दिया कि उसने एक दाना चखा तक नहीं। वह समझ कर कि बेटी
झूठी बातें बना रही है, माँ ने लकड़ी से एक प्रहार उसकी पीठ पर
किया। किस समय किसके प्राण कहाँ पर टिके रहते हैं, बेटी ने इतने
ही में दम तोड़ दिया।
साँझ के समय षीतल पवन चलने लगी तो धूप से मुरझाए काफल
फिर ताजे हो आये और टोकरी भरी दिखने लगी। जब माँ ने देखा
कि काफल तो पूरे ही हैं और उसने तो अपनी निरपराध बिटिया को
मार डाला तो उसने भी ”पूरे हैं ओ बिटिया, पूरे ही हैं, पूरे हैं ओ
बिटिया, पूरे ही हैं“ कहते-कहते अपने भी प्राण त्याग दिये। माँ के
प्राण एक पक्षी बने, वही पक्षी जो चैत भर कूजता फिरता है: ”पूरे हैं
बिटिया, पूरे ही हैं“। मृत्यु के बाद वह लड़की भी एक चिड़िया बन गई
जिसके करुण स्वर चैत्र माह भर सुनाई देते हैं-‘काफल पक गये, मैं न
चख पाई।“