उत्तराखण्ड: परंपरा:
जीवन की विभिन्न परिस्थितियों की विविध मनस्थितियों को
सहजता के साथ अभिव्यंजित करने वाले गीतों को अलग-अलग
जनपदों के क्षेत्रों के गायकों या गिदारों द्वारा अलग-अलग रूपों
में सुनकर ऐसा अनुभव हुआ कि जिस प्रकार कबीर की रचनाओं
को उनके शिष्यों ने अपने-अपने इलाकों की भाषाओं का संस्पर्ष
प्रदान किया था, उसी प्रकार कुमाऊं के लोकगीतों अथवा संस्कार
गीतों की शब्द संरचना व उच्चारण षैली भी भिन्न-भिन्न स्थानों
की बोलियों से प्रभावित हुई है। शब्दरूपों का यह अंतर प्रकाशित
लोकगीतों में भी परिलक्षित होता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भाषाई निजता एवं स्वतःस्फूर्त भावाभिव्यक्ति
से ही लोकतत्व पनपता है और समुदाय में विकसित होने के कारण
उसका मौलिक स्वरूप गांवों में अधिक संरक्षित है, पर अब वहां भी
लोक कला के साधक अल्पशिक्षित या साधनविहीन होने की वजह से
अपनी विरासत को बचाए रखने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहे हैं;
क्योंकि कला और संस्कृति के नाम पर कुमाउनी गीतों की कैसेट/सीडी
के माध्यम से आधुनिकता की घुसपैठ ने न केवल भाषा के साथ छेड़-छाड़
की है, वरन् भाव पक्ष को भी कुत्सित किया है।
कुमाउनी गीतों की एलबमों के माध्यम से एक ओर यदि अद्यतन श्रव्य/
दृष्य विधाएं नूतन एवं विषद रूप धारण कर रही हैं, तो दूसरी ओर मानव
मन की विविध वृत्तियां भी बेझिझक मुखरित हो रही हैं। देखने वाली बात
यह है कि इनमें भावनाओं की काल्पनिकता, भाषा की उदारता, कथ्य की
प्राचीनता और शिल्प की नवीनता की मात्रा कितनी है ? क्यांेकि किसी भी
चीज की अति हानिकारक हो सकती है।