लोककथा: पुर पुतई पुरै पुर:
हिंदी अनुवाद:
चैत के महीने में जब वनों में काफल (एक फल) पकने लगता है,
दोपहरियाँ नीरस होने लगती हैं और साँझ उदास, तो एक पक्षी वन-
वन पर्वत-पर्वत कुहूकता फिरता है ”पूरे हैं, ओ बिटिया, पूरे ही हैं,
ओ बिटिया, पूरे ही है।“ हर साल चैत माह भर जब तक वनों में
काफल दीखते हैं, यह पक्षी ऐसे ही कूकता रहता है। जब काफल वृक्षों
पर नहीं रहते तो यह पक्षी भी नहीं दिखाई देता। एक कहानी है इस
चिड़िया की भी।
एक साल की बात है कि चैत माह में, जब काफल के वृक्ष फलों से
लदे रहते हैं, किसी गाँव की एक औरत प्रातः ही टोकरी लिए वन की
ओर चली काफल तोड़ लाने के लिए। उसके वन से लौटते समय तक
दोपहरी हो चुकी थी। गाँव में रहने वाली नारियों को कहाँ फुर्सत। घर
आकर काफल की टोकरी जमीन पर रखी तो भोजन बनाने की व्यवस्था
में जुटी और फिर खेतों में काम करने के लिए जाने को तैयार हुई। जाते
समय अपनी बिटिया से कह गई कि इस टोकरी का ध्यान रखना, इसमें
से काफल न खाना, मैं आकर स्वयं दूँगी। क्रमशः