लोककथा : पुर पुतई पुरै पुर :
इज त दिन भरि खेतन में बुति करण में भै। नानि काफलनाक
डाल थैं भै रै। काफला का लाल रसिल दाणन कैं देखि बेर वीक
मन त तरसीनेर भयै, पर इजैल झन खयै जो कै राखछी। नानिल
एक गुद लै टिपि बेर खपन निं हाल। चैत में घाम त पणणैं लागनीं,
गरम लै हई जांछ। दिन भरिक घामक वील काफल ओहल्यै गे और
डाल में मुणि हंु भै ऐगे।
जब इज घर लौटी त वील काफल कम द्याखा। वील चेलि थैं कै:
‘‘यो काफल त्वील खइं कि ?’’ चेलिल सांचि सांचि कै कि वील
एक गुद लै निं चाखो। यो समजि बेर कि चेलि आलसाट करणैंछ,
इजै लै लाकड़ै कि एक दणैंक वीक पुठन हांणि दि। कबखतै कै कै
हंस कतिकै हुंछ, चेलिल पराण छोड़ि दी।
व्याल हुं ठंडि हौ छिटकि बेर घामाक ओहब्यई काफल फिरि डालि
भरि हैगे। जब इजैल देख कि काफल त पुरै छन और वील आपणि
बेकसूर चेलि मारी त ‘‘ पुर पुतई पुरै पुर,’’ ‘‘ पुर पुतई पुरै पुर’’
‘‘पोथी ! यो काफल त पुरै छन’’ कून कूनैं वील लै पराण छोड़ि दि।
इजाका पराण एक चड़ बण – उई चड़ जो चैत भरि पुर पुतई पुरै पुर
कूंछ। चेलि लै मरि बेर एक चड़ बणि गे, जैकि रूंगतुंगानि आवाज
चैताक म्हैंण भरि सुणीछ: ‘‘काफल पाक्को, मैंलै निं चाखो’’।।