उत्तराखण्ड : कुमाऊं के लोकगीत :
जिस तरह संस्कृत साहित्य में प्रकृति के माध्यम से जन-गण-मन
का सहज वर्णन उपलब्ध होता है, उसी तरह कुमाऊं के लोकगीतों
में भी प्रकृति मानव की चिर सहचरी के रूप में प्रतिष्ठित हुई है।
देवस्थानों में पुनीत वृक्षों के रोपण की प्रथा तथा पुण्य पर्वों के
अवसर पर उनके पूजन की प्रवृत्ति के पीछे सक्रिय श्रद्धा लोकमानस
की उस सांस्कृतिक चेतना की द्योतक है, जो आदमी को पहाड़ों,
जंगलों, नदियों, झरनों, बादलों, हवाओं, फूल-पत्तियों अथवा जीव-
जन्तुओं के साथ अपनापा जोड़ने वाली अलौकिक दृष्टि प्रदान करती है।
इसी दृष्टि से संसार प्रभु का विराट स्वरूप प्रतीत होता है या पत्थर में
भी भगवान का आभास होता है। यही आभास मनुष्य को पषुत्व से
देवत्व की ओर उन्मुख कर सुसंस्कृत बनाता है।
विद्वानों का मानना है कि कुमाऊं के लोकगीतों की सरसता का प्रमुख
कारण यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य है़, जिसने यहां के जनजीवन को भी
कलात्मक बनाया है। यहां के गीत श्रम करने वाले मानव मन को थकान
में आषा और निराषा में धीरज प्रदान करते रहे हैं। खुले हुए आसमान और
फैली हुई हरियाली के बीच गूंजने वाले लोकगीतों की स्वरलहरियों, लोक
नृत्यों की भाव-भंगिमाओं एवं लोकवाद्यों की थापों में मौजूद लोकतत्व ही
यहां के लोकसाहित्य की आत्मा हैं।
लोकगीतों के संदर्भ में एक बात यह भी स्मरणीय है कि ‘लोक’ षब्द की
परिधि में छोटी से छोटी बस्ती से लेकर बड़े से बड़े षहर के लोग आते हैं,
जो किताबों से मिलने वाले षास्त्रीय ज्ञान से वंचित होने के बावजूद संवेदनषील
तथा आस्थावान होते हैं। इन लोगों के सुख-दुख की अनुभूतियां ही लोकगीतों में
प्रस्फुटित होती हैं और मौखिक रूप से पुरानी पीढ़ी द्वारा नई पीढ़ी को मिलने
वाली यह विरासत अपने भाव पक्ष की सहजता के कारण जीवन्त और मधुरता
के कारण लोकप्रिय बनी रहती है।