गजल: पतझड़
वक्त कैसा भी हो आता है चला जाता है
आदमी है कभी रोता कभी मुसकाता है
हर अंधेरे ने निहारा है सितारों का कपास
हर उजाले ने खयालों का सूत काता है
ये तो मुमकिन है कि सबके लिए खुषियां ना हों
ग़म के एहसास से तो हर किसी का नाता है
बहार पतझड़ों की राख से पनपती है
इसीलिए उसे पतझड़ ही रास आता है