कबीर वाणी:
दीप:
चलण चाक हूं देखिबेर
दिंछ कबीरा रवे
द्वी पाटूं का बीच मैं
साबुत नि बचण क्वे
घिन्न हेरण हूं बा्ट लाग्यूं
घिन्नो नै मिल क्वे
आपण भितर जब चाछ त
मी है घिन्न न क्वे
जब मी छ्यूं तब हरि नि छ्या
अब हरि छन मि नै
सकल अंध्यार समाप्त जब
दीप जलौ मन मैं