लोककथा: फसक-फराल 2
उस नाले में एक बार चाचाजी ने कद्दू लगाए। कद्दू क्या हुए ? सामान
रखने के उपकरण थे। होनी ऐसी हुई कि एक बार डिप्टी कमिश्नर साहब
वहां दौरा कर रहे थे। उन्होनें कद्दुओं को देखा और कहने लगे – ‘हलो,
जोषी ! टुमारा कद्दू बहोत अच्छा ! हमने ऐसा कद्दू कभी नहीं देखा। तुम
एक हमको देदो। हम इसे नुमायष में रक्खेगा।’ चाचाजी ना ना कह रहे थे,
पर साहब नहीं माने। चार कुली करके जैसे तैसे अल्मोड़ा भेजा। वहां वह कद्दू
तोला गया तो पांच मन का निकला।
इस खेत में एक बार मूली बोई। ऐसी हुई कि क्या बताऊं ? मैदान की मूली
जब उतनी बड़ी होती है तो पहाड़ की मूली कितनी बड़ी होगी, तुम समझ
सकते हो। एक मूली तो इतनी बड़ी हुई कि कुदाल से खोदते खोदते हार गए,
पर उसकी जड़ों का कोई पता ही नहीं। लाचार होकर सब्बल लाए। उससे उसके
चारों तरफ खोदा। जब एैसे भी नहीं उखड़ी तो मैंने उसे अंकपाष में बांधकर
जोर लगाया। बड़ी मुष्किल से उखड़ी वह।
उसका उखड़ना था कि हम दोनों कगार पर जा गिरे और वहां से नीचे की तरफ
लुढ़कने लगे। कभी मूली नीचे, मैं ऊपर; तो कभी मैं नीचे, मूली ऊपर। लुढ़कते
लुढ़कते नाले तक जा पहुंचे। मैं रेत के ऊपर गिरा और मूली नदी के पत्थर पर।
पत्थर फूटकर चकनाचूर हो गया। भाई साहब ने दो मजदूर बुलाए। एक बड़ा डंडा
मंगाया, जिससे उसे बांधकर राम राम कहते हुए घर ले गए। अब आप समझ
सकते हैं कि कितनी बड़ी नहीं रही होगी वह मूली ? और क्या कहूं ? झूठ बोलना
आता नहीं है। जैसी बीती, वैसी बता दी है।