लोककथा : फसक-फराल 1
हिंदी अनुवाद:
एक बोला – ‘हैं जी ! मूली देखी तो जौनपुर में ही देखी। एक मूली
एक नन्हें मुन्ने हाथी का पैर समझ लो, और क्या कहूं ? वहां के लोग
कहते हैं कि कोई कोई मूली पच्चिस तीस सेर तक होती है। और बात
भी सच्ची है। मैंने अपनी आंखों से देखा है। मैं वहां के मूली के खेतों में
हो आया हूं। मूली होती है तो बहुत ही बड़ी होती है। कह चुका हूं कि
हाथी के पैर की तरह ही होती है। वहां के लोग ऐसा कहते हैं कि उसके
लिए एक खास प्रकार की मिट्टी चाहिए। उतनी बड़ी मूली वहां भी सब जगह
थोड़ी होती है। मैं सब देख भाल आया। सिर्फ नवाब के यहां, पता नहीं क्या
विषेषता होगी ? वहीं वैसी मूली पैदा होती है।’
जोषी जी जरा सा खांसते हुए बोले – ‘हमारे घर के सामने वाली खाई का
जो नाला है, उसकी मिट्टी ऐसी होती है कि कोई चीज भी वहां बोना तो
अलग रहा, खाली चूट पीट के भी गिर जाए तो ऐसी फूलती है, ऐसी
फूलती है कि अब क्या कहूं ? पिताजी बताते थे कि एक बार वहां भांग हुई।
इतना बड़ा दाना कि अब कितना बताऊं ? क्या कहूं ? अब तुम वह कितना
बड़ा हुआ होगा करके ऐसे समझो कि एक दाने के दो भाग करो तो एक एक
भाग की एक एक सुंदर कढ़ाई बन गई। कढाई में एक भाबर वाली अच्छी
दुधारू का दूध भली भांति समा जाया करता था।