लोककथा : फसक-फराल 1
मूल कथा: एकैल क्वे – ‘हं हो ! मुल देखौ त जौनपुरै द्योख।एक मुल एक
नान नान हातिक खुट समझि लियो, बांकि के कूं ? वांक लोग कूनीं कि बाज
बाज मुल पच्चिस तीस सेर तक हुनीं। और बात लै सांची छन। मैंल आपण
आंखनैल देखि राख छ। मैं वांक मुलना गाड़नै में जै अयूं। मुल हुंछ त भौते
ठुल हुंछ। कई चुकि गयूं कि हातिक खुट जस हुं कै बेर। वां पना मैंस यस
कूंनीं कि विहूं एक खास प्रकारोक माटो चैंछ। उतण ठुल मुल वां लै सब जाग
थोड़ी हूं ?मैं सब चै चितै अयूं। सिरफ नबाबै कै हांगन मैं जे काला हुनलि, वैं
उस मुल उपजौं।’
ज्वेषि ज्यू मुणी खांसनै बलाण – ‘ हमार घराक सामणी भ्योलक जो खोल छ,
वीक माटो एस हुंछ कि जे चीज लै वां ब्वेण त अलग रय, सुदै चोट्यै बेर लै
खिती गै त एसि फुलांछ, एसि फुलांछ कि आब के कूं ? बौज्यू कूंछी कि एक
साल वां भांग भै। यतणो कि अब कतण बतंू ? के कूं ? अब तुम ऊ भांग
कतण भै हुनल कै ये लै शमजौ कि एक दाणक द्वी खाप करा त एक एक
खापाक एक एक सुंदर भद्योले बणिग्वे। भद्याल मैं एक भबरये भलि धिनालिक
दूद भल सुंदर भैं अटै जानेर भै।