kashmkash

रुबाई: कषमकष

परवाने को आगे बढ़ता देख षमा ने मन में सोचा
बुझ सकती हूं लेकिन बुझ जाने पर महफिल का क्या होगा
अरमानों का जोष उमड़ता देख हुस्न थोड़ा घबराया
परवाना गर नहीं रहा तो इस टूटे दिल का क्या होगा

जजबातों से हुस्न दबे तो जान इष्क की बच जाएगी
मगर अंधेरे में महफिल के राही राह भूल जाएंगे
कुछ के लिए मिटूं या जलती रहूं कई के लिए क्या करूं
इष्क फर्ज के दम्र्यां जलती बुझती मुष्किल का क्या होगा

कुछ से ज्यादा कई वकत रखते हैं लोगों की नजरों में
ऐसी हालत में महफिल से वफा निभाना ही जायज है
दिल के लिए बेवफा होकर कत्ल कर दिया अरमानों का
अब दुनिया ही सोचे मेरे जैसे कातिल का क्या होगा

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Published by

Dr. Harishchandra Pathak

Retired Hindi Professor / Researcher / Author / Writer / Lyricist

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