लोककथा : घौताक इजार में सांपल 2
पहला भी साधारण गप्पी न था। जमीन के नाम पर तो उसके पास दो-चार
छोटे-छोटे खेत भर थे। उनमें भी कभी-कभी ही खेती की जाती, अक्सर वह
खाली ही छोड़ दिये जाते, पर बातें बनाने में तो वह अपने मित्र से भी कहीं
दो चार हाथ आगे ही बढ़ा हुआ था। बोला: ”अरे भाई, क्या बताऊँ इतनी
अधिक जमीन में खेती करते-करते क्या-क्या बीतती है, क्या नहीं गुजरती
मुझ पर। मित्र, जिसे करना पड़ता है वही जानता है।
तुम्हें एक साल की बात बताऊँ। खाली छोड़ी हुई धरती को खेती के योग्य
बनाने में लगा हुआ था। पहले तो संबल से वह जमीन खूब खोदी मैंने।
खूब खोदी संबल से। फिर उस जमीन में हमने घौत की की फसल बोई।
घौत के पेड़ तू देखता तो दाँतों तले उंगली उबा लेता। इतने बड़े बड़े पेड़ कि
बाघ भी उनके नीचे छिप जावे तो दिखाई न दे। हाँ, तो खेत को खोदते
समय एक संबल खो गया। बहुत ढूँढ़ खोज की। इधर देखा, उधर देखा
किन्तु संबल का कुछ पता न चला। मैंने भी सोचा, अब छोड़ो भी, फसल
काटते समय तो मिल ही जावेगा। फसल भी तैयार हो गई। घौत काटे,
फलियों से दाने निकाल कर भीतर संभाले, किन्तु संबल न मिला। कई दिन
बीत गये। मैंने भी संबल मिलने की उम्मीद छोड़ दी।
पिछले साल गर्मियों की ही बात है। मैंने अंदर से घौत निकाले। मित्र, उस दिन
घौत की पिट्ठी भरी हुई रोटियाँ खाने को जी हो रहा था। घौत भिगोए, सिर पर
पीसे, और पकाई पिट्ठी भरी रोटियाँ। अब क्या कहूँ मित्र, पहली रोटी का पहला
कौर तोड़ कर ज्यों ही मुँह में डाला था कि वह खोया हुआ संबल दाँत से टकराया,
कड़ाम की आवाज हुई और दाँत के टूट कर दो टुकड़े हो गए। यह वही संबल था
मित्र, जो खेत खोदते समय खो गया था। देख लो मित्र, यही दाँत संबल की भेंट
चढ़ गया।