कविता : धीरे धीरे :
खुशनुमा पत्ते ही आगे बढ़कर
फूल बन जाते हैं धीरे धीरे
और वो फूल ही पूरे खिलकर
बाग महकाते हैं धीरे धीरे
क्यों ये पतझड़ सा लगे है सावन
वही गुल’ान है वही पौधे हैं
जाने क्या बात है कि कलियों में
यूद्ध ठन जाते हैं धीरे धीरे
आज कांटों के सख्त चेहरों पर
हर तरफ फूल के मुखौटे हैं
इसलिए बाग में हवाओं के
कारवां आते हैं धीरे धीरे
यू तो कांटे न सिर्फ फूलों के
बल्कि गुलशन के भी रखवाले हैं
जिसका जो काम उसी पर साजे
लोग समझाते हैं धीरे धीरे