लोककथा : क – को छै रे
जब प घर लौटी पटबाड़ाका पलि तरब बै जेठाणि उकैं सुणै सुणै
बेर कूनेर भै। ‘‘निउजि रांडियां त यो रात पणण तक खेतनै में
रूंनी, घरै कि खुरि बुरि जा करण पणैं।’’ देराणि चुपचाप सुणि
ल्हिनैर भै सब ताना याला।
जब असोज में धान कटै भई त देराणिक धानौक कुन्यूड़ लै अगास
पुजन भै और कुथालन गणति धान निकल। जेठाणिं लै मेहनतै कि
करि राखछि? कुथाला एक धान भै उमें लै आदुक बुसिल। जेठाणि
कैं जब मालुम भई कि देराणि का त खूब धान है रई त वीका खुटनै
बै आग बलण लागो। एक दिन रतिव्याणि करै देराणि लै चुल पन भात
धरी भै। जब भात भुतभुताण त पाला खन बै जेठाणि लै फिरि सुणैः
‘‘को रान छु रे यो भात भुतभुतूनेर?’’ आबा का देराणिल लैं सुणैं दिः
‘‘मैं निउजि छयूं रे डेल पटकूनेर।’’