लोककथा : दूर्वाष्टमी :
बामण कै फिकर भै। उ पुरोहित ज्यू नजीक गय। उनूल कय – ‘यो
नक्षत्र फल फूल बोट फसलक लिजि नको छ। नान भाउ कन मारि दियौ।
ब्वारि कन मैत पठै दियौ और नान कन नौल दबै दियौ।’ बण भाटैल
उस्सै कर। ब्वारि मैत पुजि। इजैल कय – ‘त्यर च्यल है रछ; यां किलै
ऐ छी ? मैं कणि अशगुन है रीं।’ वील चेलि हुणि खीर बणै, खवै पिवै
बेर पठै दिय। जाण बखत वीक आंचल मैं राइ दाण बादि बेर कय – ‘इनूंकैं
ब्वैनैं जाए, पछिल चानीं जाए। हरी होली त च्यल कुसलै भयो, सुकि जालि
त मरि गय हुनलो।’
बाट मैं नानि ब्वारि राइ ब्वैणैं ऐ, पछिल चानै रै। उ हरी हुणै गय। हिटनै
हिटनै उ थाकि गे। तीस लागि। जब नौल में पाणि पिणै छी, नंन भाउल
अंग्वाल हालि दी। वीक गावौक दुबड़ टुटि गय। नान कैं लिबेर उ घर ऐ।
घर ऐ बेर वील द्याख कि शौर मैं दुहर नान लगै छ। अब बण भाटा द्वि
नाति है गय।