लोककथा : दूर्वाष्टमी व्रत कथा :
मूल कथा : एक बण भाट छी। वीक सात च्याल छी और सात ब्वारि।
नान्तिन कै कै नि भया। एक दिन बण भाट गंग पार क्वै गौं बटि ऊंणौ
छियो। पाणि मैल छियो। वील गंगज्यू किनार देख कि पार्वतीज्यू वां भैटी
कुछ ध्वेण लागि रईं। वील पुछ – ‘पाणि मैल किलै छ ?’ ऊनूंल कय –
‘बिरुड़ ध्वेणयूं।’ बण भाटैल घर ऐ बेर ठुल ब्वारि थैं कय – ‘तू भोल
रातै अण खाइयै पांच कुणन मैं दी जलै बेर बिरुड़ भिजा।’
ठुल ब्वारिल रतै तसै कर, पर एक चाण खपन हालि ले। व्रत भंग है गय।
बण भाटैल दुहरि ब्वारि थैं तसि कै बिरूड़ भिजूंण हुणि कय। दुहरि ब्वारिल
लै बिरूड़ मुखन हालि दिय। व्रत भंग है गय। छै ब्वारि बिरूड़ नि धरि सक।
सबूं है नानि ब्वारि गोरु भैंस चरूनेर भै। बण भाटैल कय – ‘अब त्वी कर,
जे करन छी।’ नानि ब्वारिल रतै उठि बेर बिरूड़ एकबटै, पांच कुणा दी जलै,
बिरूड़ भिजै दिय। थ्वड़ दिनौं बाद नानि ब्वारिक च्यल भै मूल नक्षत्र मैं।
(क्रमशः)