रुबाई : कभी :
कल्पना के पंख पाकर उड़ रही
आरजूओं पर न था पहरा कभी
आइने को साफ करते रह गए
पर न पोछा ठीक से चेहरा कभी
वक्त की आवाज कर दी अनसुनी
दोस्तों की राय अक्सर टाल दी
अपने दिल की बात को भी ना सुने
आदमी इतना न था बहरा कभी
रुबाई : कभी :
कल्पना के पंख पाकर उड़ रही
आरजूओं पर न था पहरा कभी
आइने को साफ करते रह गए
पर न पोछा ठीक से चेहरा कभी
वक्त की आवाज कर दी अनसुनी
दोस्तों की राय अक्सर टाल दी
अपने दिल की बात को भी ना सुने
आदमी इतना न था बहरा कभी