लोकगाथा : मालूसाही :
हिन्दी रूपान्तर – 3 (क्रमशः)
थोड़ी देर बैठ गई वह निंगालों के जंगल में,
तब गांगुली सौक्यानी थोड़ी देर बैठी रही,
चलने लगी तो सामाधुरा चली गई,
अब चली गई है बहन ल्वारखेत के नजदीक,
वहां से पहुंची है बहन कपकोट की चढ़ाई में,
मेरा रूपसा, फिर गंगा मिलन था कपकोट के सामने,
क्षीर गंगा, सरजू गंगा तेरा मिलाप होता है,
ओ मेरे भगवान, कपकोट के सामने।
तब त्रिबंडी में स्नान किया,
ए सरयू गंगा ! अनुकूल हो जाइए,
मुझको मिल जाए औलाद का वरदान,
इतना कहकर, पहुंच गई संध्या होते समय मंदिर,
वहां मेरे भगवान हैं बागीनाथ !
बागीनाथ के मंदिर में दीपक जले हुए हैं,
शंख, घंटा, झांकर झमझम बज रहे हैं,
बागे’वर सामने कोई पुल नहीं है,
कैसे पार करेगी बहन सरयू गंगा माता,
तब गंगा पार की थी तूने गोमती के सामने –
वार रे पार हैं त्रियुगी पीपल,
चली गई गंगा जी के पार,
हाथों को जोड़ कर शिवजी के मंदिर ……