लोकगाथा : मालूसाही – 2 (क्रमशः)
जै सौका कि सुनूं का अटांगण छिया सुनूं का पटांगण,
नौ लाख बाकुरी झुपा छन, घोड़ा छन, भेड़ी छन,
बाकुरी तिलू रे हेलू लाखा,
गांगुली सौक्याण भैगे सुनिया त्यारा मुखै तें,
के करछेै ब्यौपारै लै सुनिया !
के करन छै अनै ले, के करन छै धनै ले,
को जसो भुगतन छ, संतानै न्हाति।
तब सुनिया बलाण फैगो आंसू झाडि़ बेर –
औलाद नातिना हमारा, मैले सुणी छ,
ए चितरसिला देवी मांजा, देवी परसिद्ध होली।
जो जै मनसा ले जांछ, ऊ दुख फिटन छ,
तू जै आ गंगुली देवी का मंदिरा।
आब गंगुली देवी ले, लुकुड़ पैरी हाली हो।
आब द्वीए आंखन बटी आंसू खेडि़ हालीं।
दैणा होए, देवी ! म्यारा च्यल न्है हाती,
चेली होयो म्यारा धरण देवी तू झुठ झन करिए।
औंनां औंनां ऐगे गांगुलि तली सौकाणि,
औंनां रे औंनां ऐगछि गांगुलि गोरी गंगा का छाला,
आ, न्है गेछ गांउलि घुनघुना का पाणी,
आपु न्है गेछ गांउलि कमर कमर का पाणी,
तब गांउलि तेरा लुकुड़ भिजाला हो,
तब गांउलि त्वीलै गंगा तरी है छ हो। – (क्रमशः)