विशेष : रासो साहित्य :
हिंदी के प्राचीन रूप को विकसित करने में रासो साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई। बीसलदेव रासो में भाषा के डिंगल तथा पिंगल रूपों का मिला.जुला
प्रयोग हुआ है। डिंगल हिंदी का राजस्थानी रूप है, जिसमें श्रीधर ने 1400 ई0
के आस-पास ‘रणमल छंद’ तथा कल्लौल कवि ने 1473 ई0 में ‘ढोला मारू
रा दोहा’ की रचना की।
पृथ्वीराज रासो की भाषा में भी हिंदी के अनेक रूपों का प्रयोग हुआ है, पर
अधिकांश विद्वानों ने उसे पिंगल ही माना है। तब ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप
को पिंगल कहा जाता था। पृथ्वीराज रासो के रचयिता चंदवरदाई के समकालीन
जगनिक का आल्हाखण्ड (1173 ई0) भी भाषा प्रयोग की दृष्टि से उद्धरणीय है.
तेरहवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने आम बोलचाल की खड़ीबोली में पहेलियां,
मुकरियां, ढकोसले, दोसुखन वगैरह लिखकर जिस मनोरंजक साहित्य की
रचना की, वह पर्याप्त लोकप्रिय हुआ और उसकी भाषा को ‘हिंदवी’ की
संज्ञा प्रदान की गई। उदाहरण के लिए दोसुखने प्रस्तुत हैं –
पान सड़ा क्यों ? घोड़ा अड़ा क्यों ? फेरा न था
ब्राह्मण प्यासा क्यों ? गधा उदासा क्यों ? लोटा न था