लोककथा : दिन दिदी जाग जाग :
आब व्वारिल बण बै सात गढ़ोलि घा बिन दातुलि ज्यौडि़ काटि ल्यूंण छि।
ण जांण बखत वील मन मनै भगवान हंु कै – ‘‘हे भगवान, तुम सांच
होला त मेरि यो बिपत टालिया। धोपरिक घाम लै आब ढ़वकण लागि गोछिया।
व्वारि अघिन कैं हिटनै छु, मलि कै सूरज उज्यांणि चैबेर ’’जाग, दिन दिदी,
जाग’’ कुंनी छु।
बण पुजि बेर वील देखो कि जंगलाका सारा मुस एकबटी बेर घा काटण में लागि
रयीं। जब मुसौल सात गढ़ोल घा काटि सको त स्यांपनै ऐ बेर घा कि गढ़ोइ बादि
दिहन। व्वारि लै आब घा क गढ़ोल घर हंं सारण लगै। एकाक बाद दुहरि खेप
पुजूनि छु और ‘‘दिन दिदी, जाग जाग’’ कूनी छु। जब सब काम सकी गयो त
व्वारि खुसि खुसी मैत हुं बाट लागि। दिन दिनै मैत पुजणै कि सुरि लागी भै उकैं।
सारा बाटै ‘‘दिन दिदी, जाग जाग’’ कूनीं जब उ आपण मैताक नजीक पुजी त
सूरज भगवान लै धार मैं जागि भै। गरिबिणिक दुख देखि बेर उं एतुक देर तक
जागिरै गया कि डे़ढ़ दिनक एक दिन है गे।
आपणि मैते कि देलिम पुजि बेर उ छोरि एतुक फुरमी गई कि उकैं दिन थैं लै जा
कूंणै कि फाम नि रइ। जब दिन रूकियै रै गयो और उकैं एतुक देर रोकि बेर लै
उथैं जाण हुं कैलै नि कयो त सूरज भगवानैल रीस मंे भरि बेर उ चेलि कैं फिटकार
दि और मैते कि देलि में बीक पराण गे।