विशेष : प्रभाव
अपभ्रंश और हिंदी के मध्य की भाषा को विद्वानों ने अवहट्ठ की संज्ञा प्रदान की है,
जिसे कुछ लोग प्राचीन हिंदी भी कहते हैं। प्राचीन हिंदी पर प्राकृतों तथा अपभ्रंशों
का प्रभाव परिलक्षित होता है। शौरसेनी एवं मागधी अपभ्रंशों से हिंदी की बोलियों
के विविध रूप विकसित हुए।
1. प्रथम चरण (1000 – 1500 ई0)
प्राचीन हिंदी उस समय के जैन व बौद्ध साहित्य में दृष्टिगोचर होती है और इस
पर अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। उदाहरण के लिए जैन कवि सोमप्रभ सूरि
का एक दोहा प्रस्तुत है –
रावण जायहु जहि दियहि दह मुंह एक सरीरू।
चिंतावइ तइयिय जणणि कवजु पियावएं खीरू।।
बौद्धों की बज्रयान शाखा से उद्भूत ‘नाथपंथ’ पूर्ववर्ती सिद्ध युग तथा परवर्ती संतयुग
के बीच की कड़ी माना जाता है। नाथपंथियों की भाषा पूर्वी व पश्चिमी बोलियों का
मिश्रित रूप है। उदाहरण के लिए गुरू गोरखनाथ की ये पंक्तियां द्रष्टव्य हैं –
हंसबा बोलिबा रंग । काम क्रोध न करिबा संग।
हंसबा बोलिबा गाइबा गीत। दिढ करि राखि अपना चीत।