विशेष : बोली
कोई उपबोली ही समृद्ध होकर किसी क्षेत्र की बोली बन जाती है। क्षेत्रीय
बोलियों में से जो बोली प्रदेश के अधिकांश लोगों की बोलचाल का माध्यम
बनने के योग्य होती है, उसे अपनाने में साहित्यकार भी संकोच नहीं करते।
अधिकतम लोगों में प्रचलित भाषा को राजकार्य के लिए भी स्वीकार किया
जाता रहा है। पालि काल में सामान्य जन दैनिक जीवन में प्राकृतों का
प्रयोग करते थे।
ये विभिन्न प्राकृतें संस्कृतए पालि तथा जनप्रिय उपबोलियों से उनकी वे
विशेषताएं ग्रहण करती रहीं, जो उन्हें सम्पन्न एवं समृद्ध बनाकर भावनाओं
तथा विचारों की सूक्ष्मातिसूक्ष्म अभिव्यंजना के लिए सशक्त बना सकें। यही
कारण है कि जनजीवन के अतिरिक्त धीरे धीरे साहित्यए धर्म और दर्शन के
क्षेत्र में भी प्राकृतों का आधिपत्य हो गया। जिस समय प्राकृतें साहित्यिक
अभिव्यंजना का माध्यम बनी हुई थींए उस समय जनसाधारण के विचार-
विनिमय का साधन विभिन्न अपभ्रंश भाषाएं थीय जिनसे बाद में आधुनिक
भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार संस्कृत > पालि > प्राकृत तथा
अपभ्रंश के अनन्तर हिंदी भाषा के इतिहास की कहानी लगभग 1000 ई0
से आरंभ होती है।