विचार : रहन-सहन :
एक मान्यता है कि जीव को शरीर और शरीर को स्थान किस्मत से नसीब होता है।
जहां रहना पड़ता है, वहां सहना पड़ता है। इसीलिए किसी जीव, या उसके सामूहिक
जीवन निर्वाह के तौर-तरीके को ‘रहन-सहन’ कहा जाता है। कथनी में यह दो शब्दों
का जोड़ा जितना सरल प्रतीत होता है, करनी में उतना होता नहीं ।
एक ही छत के नीचे निवास करने वाले एक ही परिवार के लोग जिन तनावों से ग्रस्त
रहते हैं, उनकी वजहों में अपने ही परिजनों के तरह तरह के स्वभावों को सहने की
मजबूरी भी होती है। ‘सहन’ की तरह ‘स्वभाव’शब्द भी कहने सुनने में जितना आसान
लगता है, उतना होता नहीं।
अभिमान के आगे लगकर ‘स्व’ अगर उसका मान बढ़ा देता है, तो भाव के आगे जुड़कर
वह उसका भाव ऊंचा कर देता है। परिजनों के विविध स्वभावों के अतिरिक्त पड़ोसियों के
विभिन्न चरित्रों या सहपाठियों अथवा सहकर्मियों के अनेक प्रकार के आचरणों को सहते हुए
उनके बीच में रहना दांतों और दाढ़ों के बीच में जीभ की जैसी स्थिति से कम नहीं।