विचार : अहंकार :
मानवीय सभ्यता के इतिहास में हिंसा और अहिंसा की निर्णायक भूमिका रही है।
समय परिवर्तन के साथ साधन भले ही बदलते रहे हों, पर दोनों का भाव आज
भी जस का तस है। रामायण-महाभारत से लेकर अब तक के प्रसिद्ध महाकाव्यों
में इन्हीं के माध्यम से अच्छे और बुरे का रहस्य स्पष्ट किया गया है। दस्तूर सा
है कि हिंसाप्रिय लोग असभ्य तथा अहिंसाप्रिय लोग सभ्य माने जाते है।
जिस तरह शहर में रहने वालों से गांव में रहने वालों की तुलना में अधिक सभ्य
होने की अपेक्षा की जाती है, उसी तरह आदमी के अन्दर रहने वाले जानवर से
जंगल में रहने वाले जानवर की अपेक्षा कम जंगली होने की नाकाम उम्मीद करना
अस्वाभाविक नहीं; मगर अफसोस कि अहंकार या क्रोध के लिए जंगल,गांव अथवा
शहर वगैरह सब बराबर होते हैं।
इस वृत्ति को आनुवंशिक की बजाय आनुजैविक भी कहा जा सकता है, क्योंकि जल
थल की तमाम योनियों में लगातार पशुत्व के आदी रहे आदमी को इंसान बनने में
वक्त लग जाता है। फिर अगर इनमें वाकई ईश्वर का अंश मौजूद है, तो इनकी ज्यादती
बरदाश्त करने की मजबूरी भी माइने रखती है। उनके बीच या उनके साथ रहने का
भी कोई मतलब जरूर है।