लोककथा :: भै भूको मैं सिती :: क्रमशः
भाइ भितेर जै बेर देखछिय त बैंणि अलकल नीन में सिति भै। भाइ लै छापरि बिसै बेर बैंणि क सिरान थें बैठि गे। द्वि एक बखत ‘दिदी, दिदी’ कैबेर बैंणि कें व्यूॅंजूंण लगै, पर कां व्यूंजछि उ। भाइ कें बैंणिक सिरान थे बैठि बैठियै व्याल हुण हुं ऐ गे। पर बैंणि कि नीन नि टुटि। भाइ लै नानतिनै भै। वील सोचः आब बैंणि कें उठूं त कसिक उठूं। यैक व्यूंजण तक जाागि रूंछु त मैंकै घर जाण हुं रात पडि़ जैंछ। यां मैें रूकि नि सकनि किलै कि इज कूंणैछी कि बैंणि कें भिटौलि दि बेर व्याल तक घर वापिस ए जयै। आखिर वील सितियै बैंणि कें टिक पिठ्या कर, भिटौलि कि छापरि वीकै सिरान थें छोडि़ बेर मरी मनैल घर हूँ बाट लाग।
जब भाइ डानाक पार ढ़विकि गोछियो त बैंणिकि लै नीन टुटि। स्वैंणा का ख्यावन में उ देखणंछी कि वीक भाइ भिटौलि कि छापरि ल्हि बेर ठाड़ हरीछ, और ‘दिदी, दिदी’ कूंणौछ। आंख खोलि बेर बैठछी त सिरान लै भिटौलि कि छापरि देखि। भैर ऐछी त क्वे निं देखींण। चाख में लै क्वे नैं, आंगण लै खालि। भितेर ऐबेर भिटौलि कि छापरि में फिरि नजर पडि़। उ भकुरि भकुरि बेर डाड़ हालण लागि कि मैं योकसि सितियै रयूं, म्योर भाइ भिटौलि ल्हि बेर आछ, और मैंल निरमुखैं उकें लौटै देछ, विहुं द्वि बात लै निं करिन। योई दुख वीक मन मे व्यापि गे और ‘भै भूको, मैं सिती’ कूनें वीक परांण गे। आजलै चैता क म्हैंण जब भाइ आपणि बैंणिन कें भिटौलि दिण हूँ बाट लागि रूनीं, त उ बैंणि चडि़ बणि बेर ‘भै भूको, मैं सिती’ कुंनें कूुनें कल्ज में निसास भरि दिं।