दिलीप कुमार की पुरानी और अच्छी फिल्मों में ‘दीदार’ को लोग अभी भुला नहीं पाए हैं, जिसमें उन्होंने एक
अंधे गायक का किरदार निभाया था। ‘शोले’ में ए के हंगल, ‘आंखें ’ में अक्षय कुमार और उसके दो साथियों तथा ‘गोलमाल’ में परेश रावल और उसकी पत्नी ने अभिनय की दृष्टि सेे तरह तरह के अंधे पात्रों को सहजता के साथ जिया।
देव आनंद ने ‘हम दोनों’ में डबल रोल किया, जिनमें से एक रोल में लंगड़े सेना अधिकारी का अभिनय भी सम्मिलित था। इस रोल को देव आनंद ने इतने प्रभावशाली ढंग से अभिनीत किया कि उसे प्रसंगवश अभी भी
याद किया जाता है। कालांतर की एक फिल्म ‘साजन’ में संजय दत्त का विकलांग होने का अभिनय भी काफी सराहा गया।
डैनी डेंग्जोंग्पा, जो फिल्म ‘जरूरत’ में दौड़ते दौड़ते दर्शकों को भा गए थे, ‘गंगा मेरी मां’ में लंगड़े की
भी अच्छी भूमिका निभा गए। श्रीराम लागू ने ‘दो दुश्मन’ तथा ओम शिवपुरी ने ‘किनारा’ में लंगड़े पात्रों
की भूमिकाओं को भली भांति निभाया है। लंगड़े पात्रों की भूमिकाओं में फिल्म ‘बूट पाॅलिश’ में डेविड के
अभिनय को भुलाना भी आसान नहीं।
हिंदी फिल्मों के खलनायकों के सरताज प्राण फिल्म ‘उपकार’ में लंगड़े मलंग की भूमिका इस प्रकार निभा गए
कि उनकी परंपरागत छबि में उनकी अभिनय क्षमता के नूतन आयाम परिलक्षित हुए। पैरों से लाचार पात्रों में
फिल्म ‘शान’ के अब्दुल की तो बात ही निराली लगी, जो छोटे छोटे चार पहियों वाले चैकोर तख्ते पर बैठ कर हाथों के सहारे दौड़ता हुआ सारे शहर में गाता फिरता है कि – आते जाते हुए मैं सब पे नजर रखता हूं ; नाम अब्दुल है मेरा सबकी खबर रखता हूं।