देह की अपंगता को चुनौती के रूप में स्वीकार करने वाले कई कर्मठ यह प्रमाणित कर चुके हैं कि जहां मुर्गा नहीं होता, वहां का सवेरा ज्यादा खूबसूरत भी हो सकता है। लोग इस सच्चाई से भी नावाकिफ नहीं कि जिन लोगों की देह का एक आध अंग अक्षम होता है, उनके अन्य अंग अपेक्षा से अधिक सक्षम होते हैं। तभी नियति की व्यवस्थित दंड प्रक्रिया में असंतुलित कर्माें के संतुलित फल परिलक्षित होते हैं। इसका कारण केवल एक को ही सुधारना नहीं, अपितु सभी को सचेत करने के लिए सद् असद् का भेद समझाना भी है।
यही वजह है कि किसी अपंग को देखकर जनमानस में केवल करुणा का ही भाव नहीं जगता, वरन् किसी अज्ञात सत्ता के व्यापक आतंक का आभास भी होता है। सार्वजनिक सहानुभूति से किसी अपंग की हीन भावना कम हो जाती है, तो वह नई उमंग के साथ आगे बढ़ता है। अपनी अपंगता को अपनी सौम्यता या शिष्टाचार से पूरित करते हुए अपने कार्य की दक्षता से सब का मन मोह लेता है। धीरे धीरे वह समाज में अपने लिए एक ऐसी जगह बना लेता है कि उसके जिक्र के बिना उसके समाज का जिक्र अधूरा सा लगता है, क्योंकि उसके चरित्र की विषेशताएं बेहद निजी और निराली होती हैं।
फिल्मी कथानकों में जिस समाज की घटना होती है, उसी परिवेश के पात्र होते हैं। इन पात्रों में यदा कदा अपंग पात्र भी पर्दे पर आते और छा जाते हैं। ऐसे पात्रों का चरित्र केवल नाटकीय ही नहीं, मर्मस्पर्शी भी होता है। इनकी भूमिकाएं अभिनीत करने वाले कलाकार फिल्मी दुनियां के स्वस्थ एवं सुदर्शन सितारे ही हुआ करते हैं।