पहले शायद प्रकृति की ही तरह रंगीन दिखने के लिए फूलों या जड़ाें से
भांति-भांति के रंग बनाए जाते होंगे और उनसे वस्त्रों को रंगा जाता होगा।
बचे हुए रंगों में से लेकर कभी किसी मनचले ने किसी नवपरिचिता को
छेड़ने के लिए थोड़ा सा रंग छिड़क दिया होगा अथवा आत्मीयता की उमंग
में किसी सुपरिचित के माथे पर टीका लगाने की बजाय चेहरे पर मल दिया
होगा। वहां से प्रारंभ हंसी-ठिठोली की यह रंग भरी परंपरा धीरे-धीरे ढिठाई
की सीमा तक जा पहुंची –
चल जा रे हट नटखट
ना छू रे मेरा घूंघट
पलट के दूंगी आज तुझे गाली रे
मोहे समझो न तुम भोली-भाली रे (फिल्म : नवरंग)