कुमाउनी भाषा का प्राचीन उदाहरण चौदहवीं शताब्दी के एक ताम्रपत्र में मिलता है,
जिसकी लिपि देवनागरी है। इसकी भाषा वर्तमान बोलचाल से पर्याप्त पृथक् है। इसी
तरह के कुमाउनी में ताम्रपत्र – भारतीचंद ।1437-1450। भीष्म चन्द ।1555-1560।
और कल्यानचंद ।1560-1565। के प्राप्त होते हैं, जिनकी तुलना करने के ज्ञात होता
है कि कल्यानचन्द के ताम्रपत्रों की कुमाउनी भाषा एवं लिपि दृष्टियों से परिष्कृत है।
चंद राजाओं के समय लगभग चौदहवीं शताब्दी से ब्राह्मणों की संख्या बढ़ी, जिन्हें राजगुरू,
पुरोहित, मन्त्री, वैद्य, ज्योतिषी, धर्माध्यक्ष, सेनापति आदि के पदों पर नियुक्त किया गया।
बाहर से लोगों के आने का दूसरा कारण यह है कि मध्यकाल में यह भाग सपादलक्ष के
नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें गूजर आकर बस गए थे।
मुसलमानी काल में बहुत से राजपूत यहाँ आकर बसे। राजस्थान के साथ कुमाऊं का घनिष्ठ
सम्बन्ध भाषा के आधार पर सिद्ध होता है। वहां से क्षत्रिय जातियों का आवागमन होता रहा।
तीसरा प्रमुख कारण धार्मिक था। कुमाऊँ-गढ़वाल में बद्रीनाथ, केदारनाथ, हरिद्वार, जागेश्वर
जैसे तीर्थ स्थानों की यात्रा पर आने वाले अनेक लोग यहीं बस गए।